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एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटRossi Thomson/Reproduced by concession of the Univदूसरी सदी से लेकर मध्य युग तक लोग ये म
इमेज कॉपीरइटRossi Thomson/Reproduced by concession of the Univ
दूसरी सदी से लेकर मध्य युग तक लोग ये मानते थे कि इंसान और बंदर के शरीर एक जैसे ही काम करते हैं. इस सिद्धांत के जनक थे दूसरी सदी के यूनानी हकीम क्लॉडियस गैलेनस या गैलेन.
अपने दौर में गैलेन को पश्चिमी देशों में सबसे बड़ा डॉक्टर कहा जाता था. लेकिन तमाम धार्मिक क़ानूनी और सांस्कृतिक मान्यताओं के चलते गैलेन ने कभी भी इंसान के शरीर का ऑपरेशन नहीं किया था. इसके बजाय उन्होंने बंदरों के शरीर का ऑपरेशन करके करीब 1,400 साल तक मेडिकल साइंस को राह दिखाई थी.
पर मेडिकल साइंस की दुनिया में अचानक ही इंक़लाब आया था. एक वैज्ञानिक क्रांति की वजह से प्राचीन काल से चले आ रहे ज्ञान पर सवाल उठे.
इंसान के शरीर की काट-छांट से उसकी अंदरूनी बनावट को लेकर नई बातें पता चलीं.
असल में इस बदलाव की शुरुआत हुई 16वीं सदी में, जब पहली बार किसी इंसान के शरीर का ऑपरेशन हुआ. इसके बाद से ही मेडिकल साइंस की दुनिया में बड़े बदलाव आए.
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इमेज कॉपीरइटAlamyपादुआ शहर
इस बदलाव का अगुवा था इटली का शहर पादुआ और इसकी यूनिवर्सिटी.
पादुआ का सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक विरासत का शानदार इतिहास रहा है. अंग्रेजी साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों को पता है कि ये शहर शेक्सपियर के नाटक द टेमिंग ऑफ़ द श्रू का केंद्र था.
यही वो शहर था जहां इटली के कलाकार गियोट्टो ने स्क्रोवेगनी चैपेल में मशहूर जीवंत क़िस्म की नक़्काशी की थी. गियोट्टो को कला की दुनिया में पुनर्जागरण का जनक कहा जाता है.
उत्तरी इटली के इस शहर की सबसे अहम बात है कि ये आधुनिक मेडिकल साइंस की बुनियाद रखने वाला शहर था.
पादुआ में सदियों से मेडिकल की पढ़ाई होती आई थी. इसी परंपरा के तहत साल 1222 में यहां यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई थी. ये वैज्ञानिक अध्ययन का मशहूर केंद्र बन गया.
इमेज कॉपीरइटAlamy
पादुआ यूनिवर्सिटी को बहुत स्वायत्तता हासिल थी. जब वेनिस गणराज्य ने इस शहर पर साल 1405 में क़ब्ज़ा कर लिया, तो भी वेनिस के शासकों ने पादुआ यूनिवर्सिटी को आज़ादी बख्शी.
पादुआ यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर फैबियो जैम्पिएरी कहते हैं, ''वेनिस गणराज्य को पता था कि पादुआ यूनिवर्सिटी की मदद से वो वेनिस की सरकार को नई पहचान दे सकते हैं. इस जीते गए शहर से नया रिश्ता जोड़ सकते हैं. इसीलिए वेनिस के शासकों ने पूरे यूरोप से विद्वानों को पादुआ बुलाकर उन्हें पढ़ने-पढ़ाने का मौक़ा दिया. उन विद्वानों से पढ़ने के लिए दूर-दूर से छात्र भी पादुआ आने लगे.''
फैबियो कहते हैं कि इसी वजह से पादुआ यूनिवर्सिटी वैज्ञानिक पुनर्जागरण का केंद्र बन गई. मध्यकालीन यूरोप में बड़े बदलाव हो रहे थे. प्राचीन काल की धार्मिक बेड़ियों से लोग ख़ुद को आज़ाद कर रहे थे. ज्ञान की नई-नई बातें जान कर धार्मिक मान्यताओं के बजाय वैज्ञानिक रिसर्च और तर्क को तरज़ीह दी जाने लगी थी.
फैबियो कहते हैं कि पुनर्जागरण के दौरान गैलीलियो, पादुआ यूनिवर्सिटी में गणित पढ़ाया करते थे.
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इमेज कॉपीरइटGetty ImagesImage caption ड्रियास विसैलियस ने पहली बार 500 से ज़्यादा लोगों के सामने मानव शरीर का विच्छेदन किया था. पहला हार्ट ट्रांसप्लांट
पहली बार इंसान के शरीर में खून के दौड़ने के सिस्टम के बारे में लिखने वाले विलियम हार्वे ने पादुआ यूनिवर्सिटी में मेडिकल की पढ़ाई की थी. इसी यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर सैंटोरियो ने थर्मामीटर का आविष्कार किया था.
18वीं सदी में इस यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर रहे गियोवान्नी बतिस्ता मोर्गाग्नी ने आधुनिक पैथोलॉजी की बुनियाद रखी. इटली का पहला हार्ट ट्रांसप्लांट पादुआ में ही साल 1985 में किया गया था.
पादुआ के पलाज़्ज़ो बो को शहर का केंद्र माना जाता है. ये पादुआ यूनिवर्सिटी का केंद्र है, जहां पर आधुनिक मेडिकल साइंस की शुरुआत हुई थी. इस यूनिवर्सिटी ने मेडिकल साइंस से जुड़ी कई खोजें की थीं.
यहीं पर एंड्रियास विसैलियस ने पहली बार 500 से ज़्यादा लोगों के सामने मानव शरीर का ऑपरेशन किया था.
बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में जन्मे विसैलियस साल 1537 में पादुआ पहुंचे थे. यहां उन्होंने मेडिसिन में डॉक्टरेट की पढ़ाई पूरी की. उसके बाद वो यूनिवर्सिटी के एनाटोमी और सर्जरी विभाग के अध्यक्ष बन गए.
अपने इसी कार्यकाल के दौरान विसैलियस ने डे ह्यूमनी कॉरपोरिस फैब्रिका, लिब्री सेप्टेम नाम का ग्रंथ लिखा. इंसान के शरीर की बनावट पर लिखा गया ये ग्रंथ साल 1543 में प्रकाशित हुआ था. इसे सात किताबों में बांटा गया था.
इन किताबों के जरिए इंसान के शरीर की बनावट और इसके काम करने के तरीक़े को विस्तार से समझाया गया था. इस किताब में इंसान के शरीर के तमाम अंगों के स्केच भी बनाए गए थे.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesमिस्र की अल सिकंदरिया यूनिवर्सिटी
यूनानी हक़ीमों हेरोफिलस और एरासिसट्राटस ने पहली बार तीसरी सदी में मिस्र की अल सिकंदरिया यूनिवर्सिटी में इंसान के शरीर का ऑपरेशन किया था.
लेकिन उन्होंने अपने तजुर्बों के बारे में जो भी लिखा, वो अल सिकंदरिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में लगी भयंकर आग में तबाह हो गया था. उस वक़्त अल सिकंदरिया यूनिवर्सिटी को विज्ञान और संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र माना जाता था.
बाद के दिनों में यूनानी और रोमन साम्राज्य में इंसान के शरीर की चीर-फाड़ को बहुत ख़राब माना जाने लगा. जिससे ये बंद हो गया. इसीलिए गैलेन को बंदरों के शरीर की चीर-फाड़ करके अपने तजुर्बे लिखने पड़े.
अब चूंकि इंसान और दूसरे जानवरों की बनावट में काफ़ी अंतर होता है. इसलिए ये गड़बड़ियां हमारी मेडिकल साइंस का हिस्सा 16वीं सदी तक बनी रहीं.
14वीं सदी से एक बार फिर से इंसान के शरीर की चीर-फाड़ मेडिकल साइंस छात्रों के लिए ज़रूरी कर दी गई. लेकिन वैसेलियस के तजुर्बों के बाद ही लोगों ने पुराने ज्ञान पर सवाल उठाने और नए ज्ञान को स्वीकार करना शुरू किया,
वैसैलियस ने जब अपनी किताब प्रकाशित की, तो उस वक़्त बहुत हंगामा हुआ था. उस वक़्त के पश्चिमी यूरोप के बहुत से विद्वानों ने वैसेलियस के दावों पर सवाल उठाए थे. इसकी वजह से वैसेलियस को अपना करियर छोड़ना पड़ा था.
लेकिन उनके जाने के बाद भी मेडिकल साइंस की दुनिया में नई रोशनी और सोच में कमी नहीं आई. उनके बाद गैब्रिएल फैलोपियो और बार्तोलोम्यो यूस्ताची ने वैसेलियस की जलाई मशाल को अगली पीढ़ी के लिए रोशन रखा. इन सबके आदमकद पोर्टेट आज भी पलाज़्ज़ो बो में लगे हुए देखे जा सकते हैं.
साल 1594 में यूनिवर्सिटी कैम्पस में ही इंसान के शरीर की चीर-फाड़ के लिए एक लैब बनाई गई थी. वो इमारत आज भी कैम्पस में देखी जा सकती है.
यहां पर मोमबत्ती की रोशनी में इंसान के जिस्म का ऑपरेशन किया जाता था. इसे महिलाएं भी देखने आया करती थीं. इस दौरान पास में ही वायोलिस ऑर्केस्ट्रा बजता रहता था ताकि लोगों को चक्कर न आए.
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इंसान के शरीर की चीर-फाड़ सर्दियों में हुआ करती थी और ये कई दिनों तक जारी रहती थी. ऐसा अक्सर कार्निवाल के दिनों में होता था, जब धार्मिक पाबंदियों में छूट मिल जाया करती थी.
पादुआ शहर में एक म्यूज़ियम ऑफ़ हिस्ट्री ऑफ़ मेडिसन भी है. इसमें तमाम ऐसे सबूत हैं, जो हमें मेडिकल साइंस के सदियों के सफ़र की दास्तान कहते हैं.
इसी तरह पादुआ यूनिवर्सिटी का बॉटेनिकल गार्डेन भी विश्व धरोहर घोषित किया गया है. इसकी स्थापना 1545 में की गई थी. मेडिकल साइंस के विद्यार्थियों को यहां क़ुदरत को बेहतर ढंग से समझने का मौक़ा मिला.
ख़ास तौर से उन पौधों की जानकारी मिली, जो बीमारियों के इलाज और घाव भरने में मददगार होते थे. इस बॉटेनिकल गार्डेन के ज़रिए इटली को आलू, सूरजमुखी और तिल के अलावा चमेली जैसे पौधों से रूबरू होने का मौक़ा मिला.
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फैबियो ज़म्पिएरी कहते हैं कि यूरोप के लोगों को इस गार्डेन का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि इसकी वजह से उन्हें कॉफ़ी मिली. सोलहवीं सदी में इस गार्डेन के निदेशक रहे प्रोस्पेरो अल्पिनी ने यूरोप में पहली बार कॉफ़ी का ज़िक्र अपनी किताब दे मेडिसिना एइजिप्टियोरम में किया था.
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर और इतिहासकार रहे हर्बर्ट बटरफ़ील्ड ने साल 1959 में छपी अपनी किताब द ओरिजिंस ऑफ मॉडर्न साइंस 1300-1800 में लिखा है, ''अगर कोई एक ठिकाना खुद के वैज्ञानिक क्रांति का केंद्र होने का दावा कर सकता है, तो वो जगह है पादुआ.''
अस्वीकरण:
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